परिचय:अनामिका जैन "अम्बर" का जन्म उत्तर प्रदेश के ललितपुर नगर में सन 1982 में हुआ. उनके पिता एडवोकेट उत्तम चंद जैन और माता श्रीमती गुणमाला जैन दोनों ही धार्मिक प्रवर्ती के हैं. अनामिका ने आरंभिक शिक्षा ललितपुर से प्राप्त की. बाद में उच्च शिक्षा के लिए वो झाँसी और ग्वालियर गईं. कविता के क्षेत्र में आरम्भ से ही उनको विशेष लगाव रहा. बाल अवस्था से ही उन्होंने अपनी लिखी कवितायेँ गोष्ठियों और मंचो पर गाना शुरू कर दिया था....सन 2006 के दिसम्बर माह में अखिल भारतीय कवि सम्मेलनीय मंचो के युवा कवि सौरभ जैन 'सुमन' से उनका विवाह हुआ. उनकी काव्य-यात्रायें निरंतर जारी हैं...श्रोताओ का असीम स्नेह उनको सदैव मिलता रहा है....
शिक्षा:M.Sc. (Botany) pursuing Ph.D. कविता के क्षेत्र में उपलब्धियां:
*सा.सां.क.सं.अकादमी उत्तर प्रदेश द्वारा "विद्या-वाचस्पति" की मानद उपाधि
* सब टीवी, लाइव-इंडिया ,डी.डी.-1, इ-टीवी, सहारा-वन, परस टीवी आदि अधिकांश टीवी चैनलों से काव्य-पाठ प्रसारित।
* भारत विकास परिषद् द्वारा काव्य-सम्मान.
* छतीसगढ़ सरकार द्वारा "चक्रधर सम्मान"
* सरधना समाज द्वारा "तीर्थंकर पद्म-प्रभु काव्य-सम्मान"
* संस्कार भारती द्वारा "विद्या-भारती" की उपाधि से अलंकृत.
* जैन-काव्य श्री एवं काव्य-रत्न द्वारा सम्मानित। * जैन मिलन के राष्ट्रीय अध्यक्ष एवं विख्यात उपन्यासकार श्री सुरेश जैन 'ऋतुराज' द्वारा काव्य-भूषण सम्मान. * भारत के अधिकांश प्रदेशो में अखिल भारतीय कवि-सम्मेलनों से सफलतम काव्य-पाठ। * हिन्दी गीतों पर आधारित ऑडियो सी.डी. "अनुसार" बाज़ार में उपलब्ध।
महफ़ूज़ नहीं घर बन्दों के, अल्लाह के घर महफूज़ नहीं। इस आग और खून की होली में, अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥ शोलों की तपिश बढ़ते-बढ़ते, हर आँगन तक आ पहुंची है। अब फूल झुलसते जाते हैं, पेड़ों के शजर महफ़ूज़ नहीं॥ कल तक थी सुकूँ जिन शहरों में, वह मौत की दस्तक सुनते हैं । हर रोज धमाके होते हैं, अब कोई नगर महफ़ूज़ नहीं॥ दिन-रात भड़कती दोजख में, जिस्मों का ईधन पड़ता है॥ क्या जिक्र हो, आम इंसानों का, खुद फितना गर महफ़ूज़ नहीं॥ आबाद मकां इक लमहे में, वीरान खंडर बन जाते हैं। दीवारों-दर महफ़ूज़ नहीं, और जैद-ओ-बकर महफ़ूज़ नहीं॥ शमशान बने कूचे गलियां, हर सिम्त मची है आहो फुगाँ । फ़रियाद है माओं बहनों की, अब लख्ते-जिगर महफ़ूज़ नहीं ॥ इंसान को डर इंसानों से, इंसान नुमा हैवानों से। महफूज़ नहीं सर पर शिमले, शिमलों में सर महफूज़ नहीं॥ महंगा हो अगर आटा अर्शी, और खुदकश जैकेट सस्ती हो, फिर मौत का भंगड़ा होता है, फिर कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
-इरशाद 'अर्शी' मलिक पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही है। जिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है।
जाने क्या सोच के लहरे साहिल से टकराती हैं; और फिर समंदर में लौट जाती हैं; समझ नहीं आता कि किनारों से बेवफाई करती हैं; या फिर लौट कर समंदर से वफ़ा निभाती हैं।
23 comments:
Jivan sathi ke prati prem ko vyaqt karti khubsurat panqtiya.
सुन्दर रचना...
महफ़ूज़ नहीं घर बन्दों के, अल्लाह के घर महफूज़ नहीं।
इस आग और खून की होली में, अब कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
शोलों की तपिश बढ़ते-बढ़ते, हर आँगन तक आ पहुंची है।
अब फूल झुलसते जाते हैं, पेड़ों के शजर महफ़ूज़ नहीं॥
कल तक थी सुकूँ जिन शहरों में, वह मौत की दस्तक सुनते हैं ।
हर रोज धमाके होते हैं, अब कोई नगर महफ़ूज़ नहीं॥
दिन-रात भड़कती दोजख में, जिस्मों का ईधन पड़ता है॥
क्या जिक्र हो, आम इंसानों का, खुद फितना गर महफ़ूज़ नहीं॥
आबाद मकां इक लमहे में, वीरान खंडर बन जाते हैं।
दीवारों-दर महफ़ूज़ नहीं, और जैद-ओ-बकर महफ़ूज़ नहीं॥
शमशान बने कूचे गलियां, हर सिम्त मची है आहो फुगाँ ।
फ़रियाद है माओं बहनों की, अब लख्ते-जिगर महफ़ूज़ नहीं ॥
इंसान को डर इंसानों से, इंसान नुमा हैवानों से।
महफूज़ नहीं सर पर शिमले, शिमलों में सर महफूज़ नहीं॥
महंगा हो अगर आटा अर्शी, और खुदकश जैकेट सस्ती हो,
फिर मौत का भंगड़ा होता है, फिर कोई बशर महफ़ूज़ नहीं॥
-इरशाद 'अर्शी' मलिक
पकिस्तान के रावलपिंडी से प्रकाशित चहारसू (मार्च-अप्रैल अंक 2010) से श्री गुलज़ार जावेद की अनुमति से उक्त कविता यहाँ प्रकाशित की जा रही है। जिसका लिपिआंतरण मोहम्मद जमील शास्त्री ने किया है।
सुमन
loksangharsha.blogspot.com
bahut hi achee prastuti.....dil ko choo gaee.....thanks anamikaji.
bahut hi achee prastuti.....dil ko choo gaee.....thanks anamikaji.
गजब-ए-हक्त, ये फ़क्त तुने लिख दिया,
लफ़्ज़ों से बयाँ, लिख-ए-हकीकत दिया,
आरजू-ए-दिल, सब सामने रख दिया,
खुदा से आरजू, आपने, अपनी कह दिया,
Parastuti bahut hi achchi hai
Susundrm..!..♥
Waw
Wah wah kaya baat hai
Wah wah kaya baat hai
'मुहब्बत इतनी बरकरार रखो कि मज़हब बीच में न आये कभी,तुम उसे मस्जिद तक छोड़ दो वो तुम्हें मंदिर छोड़ आये कभी..!!
APNE IS PAWITRA BANDHAN KO HAMESHA BARKARAR RAKHNA,
JEEVAN KE HAR KHUBSURAT PAL KO YAAD RAKHNA,
OR DUNIYA ME PATI PATNI KE RISHTEY U HI NAHI BANTE ANAMIKA OR SAURABH JI
ISLIYE IS PAWITRA BANDHAN KE PYAR ME APNA PYAR HAMESHA BESUMAR RAKHNA..... .. BEST OF LUCK
Resounding Shayari
बहुत सुंदर ।।।
वाह क्या बात है
जाने क्या सोच के लहरे साहिल से टकराती हैं;
और फिर समंदर में लौट जाती हैं;
समझ नहीं आता कि किनारों से बेवफाई करती हैं;
या फिर लौट कर समंदर से वफ़ा निभाती हैं।
बहुत खूब अम्बर जी
बहुत खूब अम्बर जी
rukmani wali kavita bhi post kijiye anamika ji
Bahut hi sundar
श्रृंगार रस पर अनामिका'अंबर ' जी ,आपकी सचमुच बड़ी गहरी पकड़ है ।आपकी शायरी और कविताएं हृदय को भीतर तक छू जाती हैं ।
अति सुन्दर शब्दों से रचना किया है
Post a Comment